Saturday, June 4, 2011

तुम्हारे लिए




काश कि आज मुझे पर लग जाएँ
ताकि मैं उड़ कर आ सकूं
उस जगह जहाँ तुम हो...
देख सकूं वो चेहरा
जिसे देखे बिना
ना जाने कितनी रातों का
सवेरा ही नहीं आया...
छू सकूं वो मुस्कान
जो शहद जैसी मीठी लगती है...
थाम सकूं वो हाथ
जिनमें
मेरी सारी दुनिया बसती है...
कह सकूं वो बातें
जिन्हें कहते कहते
अचानक
चुप हो जाती हूं
जाने क्या सोचकर...
पूछ सकूं
तुम कैसे हो
मुझसे दूर रहकर
क्या तुम्हें भी ऐसा लगता है...
देख सकूं वो सब कुछ
जो तुम्हें इतना प्यारा है...
तुम्हारा घर, गली, मोहल्ला..
तुम्हारे घर का आंगन..
और आंगन की वो नन्हीं सी
परी जैसी गुड़िया...
मेरी भी हो मुलाक़ात
तुम्हारे उन कहकहों से
जिन्हें याद कर के
अक्सर
तुम्हारी आंखें भर आती हैं..
महसूस कर पाऊं उस ज़िन्दगी को
जिसने तुम्हें
ऐसा बनाया...
जान सकूं
तुम्हारे शहर में बसे
उस दर्द को
जो हर बार
तुम्हें ज़ख्मी छोड़ देता है...
और हाँ
ज़रा देखूं तो
वो मरहम भी
जो तुम्हारे
सारे घाव भर देता है...
समझ पाऊं
वो सभी बातें
जो तुम्हें कहनी हैं...
पर
तुम टाल जाते हो
ये सोचकर
कि
ये पगली नहीं समझेगी...
हर उस लम्हे
उस पल को जीना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ
जिसे बाँटने को
उस वक्त कोई भी नहीं था...
काश कि आज मुझे पर लग जाएँ
ताकि मैं उड़ कर आ सकूं
उस जगह जहाँ तुम हो...

Saturday, April 9, 2011

सवाल


आज न मेरे पास कहने को कोई कविता है, न सुनाने को कोई ग़ज़ल
न बेहद खूबसूरत शब्द हैं, और न ही दिल छू जाने वाली भावनाएं
सिर्फ एक चीज़ है...
सवाल..
ढेर सारे सवाल..
खुद से, दुनिया से, अपनों से, दोस्तों से, माँ से, पापा से, सभी से..
शुरू कहाँ से करूँ समझ नहीं आता
बस हाथ चल रहे हैं और लिखावट बनती जा रही है..
चलो पहला सवाल खुद से ही
बहुत गुरूर था मुझे कि लोगों को एक नज़र भर में पहचान लेती हूँ
क्यों आज खुद को देखने पर भी परायापन सा लगता है?
सामने वाले कि आँखें पढ़ के उसके दिल का हाल समझ लेती हूँ
क्यूँ ये समझ नहीं पाती कि मेरा अपना मन क्या चाहता है?
दूसरा सवाल अपनी माँ से..
कहते हैं कि दूर विदेश में बैठे बच्चे को चोट लगे तो पहले माँ का दिल दुखता है,
पर तुम्हें क्यों मेरी आँखों का दर्द, मेरी तड़प दिखाई नहीं देती?
क्यों तुम कभी यूँही हाथ बढ़ा कर मेरे सर पे नहीं फेर देती?
तीसरा सवाल पापा से
हर पिता के अपने बच्चों को लेकर कुछ अरमान होते हैं कुछ सपने होते हैं,
अगर कभी गलती से मैं राह भटक गयी और आपके सपनों को पूरा नहीं कर पायी तो क्या आप मुझे माफ़ कर दोगे? और रोज़ ही कि तरह प्यार से गाल पर चपत लगाकर सीधे रास्ते पर मुझे लौटा लाओगे?
चौथा सवाल तुमसे
क्या तुम्हारी बेरुखी कि वजह ये है कि मैंने तुम्हे चाहा?
क्यों आज इतना वक़्त नहीं है तुम्हारे पास कि मेरे सर पर हाथ फेर कर मेरे साथ दो पल मुस्कुरा सको?
क्यों तुम्हें मेरे गलती करने पर गुस्सा नहीं आता?
क्यों मैं चाह कर भी आज तुम्हारा हाथ थाम पाने कि हिम्मत नहीं जुटा पाती?
क्यों बेवजह ये जताते हो कि मैं तुम्हारे लिए कोई मायने नहीं रखती?
और अब बारी है मेरे दोस्तों कि
कहते हैं दोस्ती एक ऐसा रिश्ता है जिसे हम खुद ही बनाते हैं और खुद ही निभाते हैं,
क्यों आज इस रिश्ते में इतनी दूरी हो गयी कि तुम कान खींच कर मुझसे सवाल नहीं करते?
क्यों गालियाँ देकर मुझे मिलने को नहीं कहते?
क्यों अपनी नाराजगी को अपनी हंसी में छुपा लेते हो?
क्यों इतना पराया कर दिया है मुझे कि तुमसे तुम्हारी परेशानी की वजह मुझे पूछनी पड़ती है?

कहाँ गया वो सब जो पहले था और इतना खूबसूरत था?
क्या सब मैंने अपने ही हाथों खो दिया?
कभी किसी रिश्ते की कद्र ही नहीं की?
किसी कि भी उम्मीदों पे खरी नहीं उतर पाई?
या वो सब सिर्फ एक भ्रम था?
सिर्फ एक भ्रम???

Sunday, April 3, 2011

ख्वाब


ख्वाब भला कौन नहीं देखता..
रोज आँखें मूंदते ही सैंकड़ों ख्वाब हमें घेर लेते हैं
हम धीरे धीरे उन ख्वाबों की दुनिया में खो जाते हैं..
कुछ ख्वाब बेहद खूबसूरत होते हैं
उन्हें बार-बार देखना बहुत अच्छा लगता है..
उनके ज़िक्र भर से ही दिल खुश हो जाता है..
लेकिन
जब हम हक़ीक़त से रूबरू होते हैं
तो वह प्यारा सा सपना
काँच की तरह
टूट कर बिखर जाता है..
उसकी खिरचें आँखों में चुभने लगती हैं..
लेकिन उस दर्द को नज़रों में छिपा कर रखना
कितना मुश्किल होता है..
और हम सिर्फ एक बहाना ढूंढ़ते हैं
अपने जज़्बातों को आज़ाद कर देने के लिए..
ऐसे में जब किसी हवन का पावन धुआँ
आँखों में लगता है
तो आँखों से बहने वाले उस पानी के साथ,
भीतर का सारा दर्द बह जाता है
और अपना अस्तित्व शुद्ध प्रतीत होता है..

Monday, March 28, 2011

:)


आदत नहीं थी मुझे कभी ख्वाब देखने की,
पर हर रात तुमसे ऐसे मिलकर अच्छा लगता है..
यूँ तो सोचना किसी बात पे बेवजह गवारा नहीं,
पर तुम्हें सोचना अच्छा लगता है..
बीते लम्हे अब तो कभी याद ही नहीं आते थे,
पर बैठे बैठे अचानक तुम्हारा याद आना अच्छा लगता है..
खोई नहीं ऐसे ही कभी सुध बुध अपनी,
पर तुम्हें सोच कर सब कुछ भुलाना अच्छा लगता है..
खो बैठे थे दुनिया की भीड़ मैं अपने आप को,
पर तुम्हारे साथ खुद को पाना अच्छा लगता है..
कहते थे सभी बहुत समझ है दुनियादारी की हमें,
पर कभी कभी अच्छा बुरा सब भूल जाना अच्छा लगता है..
अपने ही अश्कों से नफरत थी हमें,
पर कभी तुम्हें याद करके एक आंसू बहाना अच्छा लगता है..
तुम्हारी बाहों में गुज़रे वो चंद सुकून के पल,
वो यूँ ही तुम्हें देखते जाना अच्छा लगता है..
हाँ मंज़ूर नहीं होगा तुमसे मेरा यूँ मिलना सभी को,
पर छुपते छुपाते यूँ तुमसे मिलने आना अच्छा लगता है..
क्यों मुमकिन नहीं हमेशा के लिए तुम्हारे साथ रह जाना,
कि हर घड़ी में तुम्हारा साथ निभाना अच्छा लगता है..
क्यों न चाहूँ मैं जीवन भर साथ निभाना,
 जब कुछ पल का ये जीवन अच्छा लगता है..

Sunday, February 20, 2011

आँखें


शब्दों का ये कारोबार मेरे बस की बात नहीं,
मुझे समझना हो तो बस तुम मेरी आँखें पढ़ लेना,
दिल में छुपे हर राज़ को ये 
पल में तुमको समझा देंगी..
बिन पूछे बिन बोले तुमको दिल का हाल बता देंगी..
चेहरे पर जिन भावों को लाने से मैं कतराती हूँ,
पल भर में वो भाव सभी बैठे बैठे समझा देंगी..
जब मन हो मेरा गुमसुम सा
तो चीख चीख कर बोलेंगी,
जब दिल में कोई हो ख़ुशी छुपी
तो हौले से मुस्का देंगी..
रो देंगी धीमे धीमे से जब याद तुम्हारी आएगी,
जब आओगे तुम सामने तो
खुद झुक के ये बतला देंगी,
गर इनकी भाषा पढ़ लोगे तो जान मुझे भी जाओगे
वर्ना इतना भी जान लो मेरा पार कभी ना पाओगे.. 

आँखें


शब्दों का ये कारोबार मेरे बस की बात नहीं,
मुझे समझना हो तो बस तुम मेरी आँखें पढ़ लेना,
दिल में छुपे हर राज़ को ये 
पल में तुमको समझा देंगी..
बिन पूछे बिन बोले तुमको दिल का हाल बता देंगी..
चेहरे पर जिन भावों को लाने से मैं कतराती हूँ,
पल भर में वो भाव सभी बैठे बैठे समझा देंगी..
जब मन हो मेरा गुमसुम सा
तो चीख चीख कर बोलेंगी,
जब दिल में कोई हो ख़ुशी छुपी
तो हौले से मुस्का देंगी..
रो देंगी धीमे धीमे से जब याद तुम्हारी आएगी,
जब आओगे तुम सामने तो
खुद झुक के ये बतला देंगी,
गर इनकी भाषा पढ़ लोगे तो जान मुझे भी जाओगे
वर्ना इतना भी जान लो मेरा पार कभी ना पाओगे.. 

Sunday, February 6, 2011

raat


बहुत दिनों के बाद..
आज आई है ये रात जो बिलकुल तन्हा है..
आज बस मैं हूँ और ये अँधेरा है मेरे साथ..
बाहों में भर के मुझे बैठा है..
हंस दूँ तो संग मुस्कुराता है..
रो दूँ.. तो साथ आंसू बहाता है..
जागूं तो आँखें खोले ताकता है..
सो जाऊं, तो आँखों में गुम हो जाता है..

पर फिर भी हर बार तुम्हारी ही याद दिलाता है..
हवा की छुअन तुम्हारे स्पर्श सी लगती है..
कोई चुपके से आकर बालों को सुलझाता है..
ठीक तुम्हारी ही तरह..
मेरी खिलखिलाहट पर साथ मेरे कोई हँसता है..
फिर अचानक जाने कहाँ गुम हो जाता है..

सच ही कहा था तुमने..
आदत न डालूं तुम्हारी..
अब तो खुद को देखूं तो भी तुम्हारा ही अक्स नज़र आता है..

सब बातों को सोचूं
और हालातों को तौलूं
तो मन मेरा बहुत अकेला पड़ जाता है..
और ऐसे में जब तुम मेरे पास नहीं होते
तो यही अँधेरा मेरा साथ निभाता है..

तुम पूछा करते हो अक्सर मेरी उलझन का सबब..
बस यही सोचती हूँ..
गर तुम ना हो तो ज़िन्दगी में अँधेरे के सिवा क्या रह जाता है?