काश कि आज मुझे पर लग जाएँ
ताकि मैं उड़ कर आ सकूं
उस जगह जहाँ तुम हो...
देख सकूं वो चेहरा
जिसे देखे बिना
ना जाने कितनी रातों का
सवेरा ही नहीं आया...
छू सकूं वो मुस्कान
जो शहद जैसी मीठी लगती है...
थाम सकूं वो हाथ
जिनमें
मेरी सारी दुनिया बसती है...
कह सकूं वो बातें
जिन्हें कहते कहते
अचानक
चुप हो जाती हूं
जाने क्या सोचकर...
पूछ सकूं
तुम कैसे हो
मुझसे दूर रहकर
क्या तुम्हें भी ऐसा लगता है...
देख सकूं वो सब कुछ
जो तुम्हें इतना प्यारा है...
तुम्हारा घर, गली, मोहल्ला..
तुम्हारे घर का आंगन..
और आंगन की वो नन्हीं सी
परी जैसी गुड़िया...
मेरी भी हो मुलाक़ात
तुम्हारे उन कहकहों से
जिन्हें याद कर के
अक्सर
तुम्हारी आंखें भर आती हैं..
महसूस कर पाऊं उस ज़िन्दगी को
जिसने तुम्हें
ऐसा बनाया...
जान सकूं
तुम्हारे शहर में बसे
उस दर्द को
जो हर बार
तुम्हें ज़ख्मी छोड़ देता है...
और हाँ
ज़रा देखूं तो
वो मरहम भी
जो तुम्हारे
सारे घाव भर देता है...
समझ पाऊं
वो सभी बातें
जो तुम्हें कहनी हैं...
पर
तुम टाल जाते हो
ये सोचकर
कि
ये पगली नहीं समझेगी...
हर उस लम्हे
उस पल को जीना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ
जिसे बाँटने को
उस वक्त कोई भी नहीं था...
काश कि आज मुझे पर लग जाएँ
ताकि मैं उड़ कर आ सकूं
उस जगह जहाँ तुम हो...